प्रमुख भारतीय बंदरगाह : Important Ports in Indian History

अति प्राचीन काल में ही मनुष्य ने नाव बनाना सीख लिया था और इसका प्रयोग कर समुद्री यात्रा करना आरम्भ कर दिया था. इसकी यात्राओं का उद्देश्य मुख्यतः व्यापार ही होता था.  ये नावें जिन तटों से निकलती थीं उन तटों की आकृति ऐसी थी कि उन्हें आसानी से स्थिर जल में लगाया जा सके. ऐसे स्थानों को बंदरगाह कहा जाता था. सिन्धु घाटी सभ्यता से ही बंदरगाह बनने लगे थे जिसमें आज भी कुछ देखे जा सकते हैं. यह क्रम प्राचीन इतिहास के प्रत्येक कालखंड में चलता रहा.
आज हम आपको भारतीय इतिहास में वर्णित महत्त्वपूर्ण बंदरगाहों के नाम बताने वाले हैं. इस पोस्ट को पढ़ कर आप जान सकेंगे कि भारतीय इतिहास में वर्णित कौन-कौन से बंदरगाह थे, किस काल में चालू थे और कहाँ और किस राज्य में प्रयोग में थे.

LIST OF ANCIENT PORTS IN INDIAN HISTORY

बंदरगाहस्थलसमयविशेष
सुतकागेन डोर (Sutkagan Dor)बलूचिस्तानहड़प्पा सभ्यतायह दाश्क नदी के किनारे बंदरगाह नगर व हड़प्पा सभ्यता से परिचित था.
सोख्ता कोह (Sokhta Koh )बलूचिस्तानहड़प्पा सभ्यतायह शादी कोर नदी के मुहाने पर था.
बालाकोट (Balakot)बलूचिस्तानहड़प्पा सभ्यतायह सोनमियानी खाड़ी के पूर्व में विदार नदी के मुहाने पर था.
अल्लादिनोअरब सागरहड़प्पा सभ्यता---
लोथल (Lothal)गुजरातहड़प्पा सभ्यतायह हड़प्पा सभ्यता का प्रमुख बंदरगाह था जहाँ से फारस की मुद्रा, जहाज आकृति, टैरोकोटा पर व गोदीबाड़ा मिलता है.
कैन्नोर (Kannur)पश्चिमी तटसंगम---
तोंडीपश्चिमी तटसंगमयह आधुनिक पौन्नानी में स्थित था, यहाँ रोम से व्यापार होता था. यह चेरों का था.
मुजिरिस (Muziris Port)पश्चिमी तटसंगमयह अरब सागर और ग्रीस के मध्य व्यापार केंद्र था. यह चेरों का था.
कोट्टायम (kottayam port/नेस्लिडा)पश्चिमी तटसंगम---
कोर्कई (Korkai Port)पूर्वी तटसंगमयह ताम्रणि नदी पर स्थित पांड्यों की राजधानी बंदरगाह था.
पोडुका (अरिकामेडु/ArikameduPort)पांडिचेरी (पूर्वी तट)संगम---
पुहार (Puhar Port)पूर्वी तटसंगमइसे कावेरीपट्टम भी कहते हैं. यह चोलों का था.
शालियूर (Shaliyur Port)पूर्वी तटसंगमयह चोल बंदरगाह था
भृगुकच्छ (bhrigukachchha)भड़ौच (पश्चिमी तट)मौर्य व मौर्योत्तर काल---
ताम्रलिप्ति (Tamralipti port)तामलुक (पूर्वी तट)गुप्तकाल---
बारबेरीकमपश्चिमी तटमौर्योत्तरयह बंदरगाह सिंध के मुहाने पर था.
सोपारा (Sopara Port)पश्चिमी तटमौर्योत्तरPeriplus of the Erythraean Sea में वर्णित बंदरगाह
सेमिल्लापश्चिमी तटमौर्योत्तरPeriplus of the Erythraean Sea में वर्णित बंदरगाह
बाइजेंटियनपश्चिमी तटमौर्योत्तरPeriplus of the Erythraean Sea में वर्णित बंदरगाह
नेलसिंडापश्चिमी तटमौर्योत्तरPeriplus of the Erythraean Sea में वर्णित बंदरगाह
मसालियापश्चिमी तटमौर्योत्तरPeriplus of the Erythraean Sea में वर्णित बंदरगाह
पिटोड्रापूर्वी तटमौर्योत्तर---
देवलपश्चिमी तटगुप्तकाल---
खम्भातपश्चिमी तटगुप्तकाल---

पल्लव कौन थे? पल्लव वंश के शासक और उनकी उपलब्धियाँ

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पल्लव कौन थे? प्रायः इसके बारे में कहा जाता है कि ये लोग स्थानीय कबीलाई थे. पल्लव का अर्थ होता है “लता” और यह तमिल शब्द “टोंडाई” का रूपांतरण है जिसका अर्थ भी लता होता है. इसलिए इन्हें मूलतः लताओं के प्रदेश का निवासी कहा जाता है. कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशी-पहलव मानते हैं. इस मत का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि “यह बात इससे सिद्ध होती है कि जब नन्दिवर्मन द्वितीय को सिंहासनारूढ़ होने के लिए चुना गया तो उसे हाथी की खोपड़ी के आकार का ताज दिया गया जो हिंदू-यूनानी राजा विभित्रयस के ताज की याद दिलाता है.” वस्तुतः वे विदेशी पहलाव (पार्थियन) के वंशज नहीं थे बल्कि मूलतः स्थानीय कबीलाई थे. सत्ता में आने से पहले इस वंश का संस्थापक बप्पदेव (Bappadevan) सातवाहन राजा के अधीन एक प्रांतीय शासक था. सातवाहनों की सत्ता का जब विघटन हो रहा था तभी वह स्वतंत्र शासक बन गया और धीरे-धीरे काँची की ओर अपनी सत्ता का विस्तार करने लगा. उनकी सत्ता के अधीन धीरे-धीरे आंध्रपथ (आंध्र प्रदेश) और तोंडैमंडलम दोनों  ही थे. उन्होंने अपनी राजधानी काँची बनायी, जो पल्लव शासन काल में वैदिक विद्या और मंदिरों का नगर बन गया. इनका उदय तीसरी या चौथी शताब्दी में शुरू हुआ. बप्पदेव के काल में प्राकृत भाषा फलीफूली. उसने जंगलों को काटकर और सिंचाई की सुविधाएँ देकर कृषि की प्रगति में योगदान दिया. उसके बाद उसी का पुत्र शिवस्कंदवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना. उसने धर्म महाराज की उपाधि ग्रहण की और अश्वमेघ और वाजपेय जैसे यग्य कराये. उसके बाद का पल्लव वंश का इतिहास बहुत वर्षों तक अन्धकारमय है.
प्रयाग प्रशस्ति (समुद्रगुप्तकालीन) से पता चलता है कि समुद्रगुप्त दक्षिण अभियान के समय कांची में पल्लव नरेश विष्णुगोप शासन कर रहा था. पल्लव का प्रभाव शायद 575 ई. तक कम रहा. संभवतः वे वास्तविक साम्राज्यवादी शक्ति 575 ई.के आस-पास बने. इसलिए (काशाक्कुदि और बैलूर पालैयम से मिले) प्राप्त ताम्रपत्रों में उनकी वंश तालिका सिंह विष्णु से शुरू होती है (575-600 ई.) और अपराजित (879-897 ई.) के शासन काल से समाप्त होती है.

पल्लव शासक और उनकी उपलब्धियाँ

सिंहविष्णु (575-600 ई.)

उसके (Simhavishnu) सिंहासन पर बैठते ही पल्लव इतिहास का नया अध्याय शुरू हुआ क्योंकि उसने अपनी कई विजय यात्रायें आरम्भ की और पल्लव शक्ति का प्रभाव सम्पूर्ण तमिल प्रदेश में पूर्णतया छाता गया. उसने चोलों मलय, कलभ्रो, मालव, पांड्य और चेरों को पराजित किया. उसने अपने राज्य की सीमा को कावेरी नदी तक बढ़ा दिया.

महेंद्र वर्मन (600-630 ई.)

उसके (Mahendravarman I) काल में जहाँ एक ओर धर्म और साहित्य की प्रगति हुई तो दूसरी ओर पल्लवों के चालुक्यों और पांड्यों से ऐसे युद्ध शुरू हुए जो लगभग 150 वर्षों तक जारी रहे. वह सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति था इसलिए उसने मत्त विल्गस, विचित्र चित्त और गुणाभार आदि उपाधियाँ धारण की थी. यद्यपि उसके काल में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने वेंगी पर अधिकार कर लिया था लेकिन वह कांची पर जब आक्रमण करने आया तो महेंद्रवर्मन ने उसे बुरी तरह पराजित किया.

नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.)

वह (Narasimhavarman I) अपने पिता महेंद्र वर्मन की मृत्यु के बाद शासक बना. उसने चालुक्यों की राजधानी बादामी को जीता. उसने इस विजय के बाद ही “महामल्ल” की उपाधि धारण की. संभवतः उसी के साथ युद्ध करते हुए चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय मारा गया. उसने अपने मित्र लंका के राजकुमार मणिवम्भ (मानववर्मन) लंका का राज्य दिलाने में सहायता प्रदान की. कुर्रम दानपत्र के अनुसार उसने चोल, पांड्य और केरल राज्यों को पराजित किया.

महेंद्र वर्मन द्वितीय (668-670 ई.)

नरसिंह वर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेंद्र वर्मन द्वितीय (Mahendravarman II) राजा बना. उसने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य को पराजित किया. वह शीघ्र ही मर गया.

परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-680 ई.)

महेंद्र वर्मन द्वित्तीय के पश्चात परमेश्वर वर्मन शासक हुआ. उसके शासन काल में पल्लवों और चालुक्यों में भयंकर संघर्ष पुनः छिड़ गया. उसने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की लाखों की सेना को इतनी बुरी तरह से पराजित किया कि शत्रु राजा को तार-तार हुए कपड़ों में युद्ध क्षेत्र से भागना पड़ा. परन्तु विक्रमादित्य द्वित्तीय के अभिलेखों में पल्लव राजा परमेश्वरवर्मन की पराजय का उल्लेख मिलता है. विद्वानों की राय है कि संभवतः पहले चालुक्यों को और बाद में पल्लवों को एक-दूसरे के विरुद्ध सफलता मिली.

नरसिंह वर्मन द्वितीय (680 ई. -720 ई.)

परमेश्वर वर्मन प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन द्वितीय 7वीं शताब्दी के अंत में राजा हुआ. उसने “राजसिंह” और “आगमप्रिय” (विद्या-प्रेमी) जैसी वीरता और विद्यानुराग सूचक उपाधियाँ ग्रहण की. उसके राज्यकाल में शांति रही.

परमेश्वर वर्मन द्वितीय (720-731 ई.)

नरसिंहवर्मन द्वितीय के उपरान्त उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन द्वितीय (Paramesvaravarman II) राजा बना. उसके शासन काल में चालुक्य युवराज विक्रमादित्य ने गंग – राजकुमार एरेयप्प की मदद से कांची पर आक्रमण कर दिया और इस युद्ध में परमेश्वरवर्मन पराजित हुआ. अपनी इस पराजय का बदला लेने के लिए उसने गंग नरेश श्रीपुरुष पर आक्रमण किया. इस युद्ध में वह पुनः पराजित हुआ और मारा गया.

नंदिवर्मन द्वितीय (731-795 ई.)

परमेश्वरवर्मन द्वितीय के कोई सन्तान नहीं थी. इसलिए उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन के लिए भीषण संघर्ष शुरू हो गए, जो पल्लवों के भावी पतन के द्योतक थे. दूसरे राजकुमार चित्रमाय को पांड्य नरेश मारवर्मन नरसिंह प्रथम का समर्थन मिला था. लेकिन जन-सहयोग और सेनापति उदयचन्द्र के सहयोग से नन्दिवर्मन द्वितीय (Narasimhavarman II) शासक बना. इसके समय में चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, पांड्य और चोल राजाओं से बराबर युद्ध होता रहा. विक्रमादित्य द्वितीय चालुक्य ने इसके शासनकाल में कांची पर आक्रमण किया, पर नन्दिवर्मन ने इसे हरा दिया. पर कालांतर में नन्दिवर्मन राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग से पराजित हो गया. संभवतः 757 ई. में राष्ट्रकूटों ने पल्लवों का आधिपत्य समाप्त कर दिया.

चोल साम्राज्य और इस वंश के शासक – The Chola Empire

आज हम चोल साम्राज्य के विषय में पढेंगे. जानेंगे इस वंश का उदय और पतन कैसे हुआ, इस वंश के राजा कौन थे. इस पोस्ट को आगे भी update किया जाएगा जिसमें हम Chola’s government (केन्द्रीय शासन), न्याय प्रणाली, आय-व्यय के साधन, कला और संस्कृति के विषय में भी जानेंगे. चलिए जानते हैं Chola Empire के सभी details in Hindi.

भूमिका : चोल वंश

चोल वंश का इतिहास प्राचीन है. इस वंश के शासक अपने आपको भारत के प्राचीनतम और मूल निवासियों की संतान मानते थे. महाभारत, मेगस्थनीज के वर्णन, अशोक के अभिलेख और अनेक प्राचीन बौद्ध और यूनानी पुस्तकों में चोलों के वर्णन  मिलते हैं. इस वंश के शक्तिशाली साम्राज्य का प्रारम्भ नवीं शताब्दी से माना जाता है और धीरे-धीरे दक्षिण भारत का अधिकांश भाग इसके अधीन आ गया. उन्होंने श्रीलंका और मालद्वीप पर भी अधिकार कर लिया. इनके पास एक विशाल और शक्तिशाली नौसेना थी. ये दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव कायम करने में सफल हो सके. चोल साम्राज्य निःसंदेह दक्षिण भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य था. इस साम्राज्य के प्रथम (द्वितीय शताब्दी से आठवीं शताब्दी) चरण के जिन वर्षों में जब यह एक प्रभावशाली साम्राज्य था, उन वर्षों में दक्कन भारत का विदेशी व्यापार बहुत समृद्ध था क्योंकि पेरिप्लस और ट्रालेमी जैसे विदेश यात्री और विद्वानों के विवरणों में चोल राज्य के बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है. इसके बाद संगम साहित्य (<<संगम साहित्य के बारे में पढ़ें) में अनेक चोल राजाओं का उल्लेख मिलता है जिनमें करिकाल सर्वाधिक विख्यात था. उसका शासन संभवतः 190 ई. के आसपास शुरू हुआ. करिकाल के कुछ समय बाद पेरुनरकिल्लि नामक प्रसिद्ध राजा हुआ जिसने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में राजसूत्र यज्ञ भी किया था. उसके बाद संभवतः प्राचीन चोल राज्य की शक्ति शिथिल पड़ गई थी. उनके राज्य के अधिकांश भाग को संभवतः पल्लवों ने जीता (पल्लव कौन थे? <<यहाँ पढ़ें.)

ह्वेनसांग

सातवीं शती में आया चीनी ह्वानसांग देश का भ्रमण करते हुए चोल राज्य में भी गया था. वह लिखता है –
“चोल राज्य 2400 या 2500 ली में फैला हुआ है और उसकी राजधानी का घेरा 10 ली है. देश उजाड़ है और ज्यादातर भाग में दलदल और वन हैं. जनसंख्या बहुत कम है और दल्कू लूटमार बहुत करते हैं.”
चूँकि ह्वेनसांग ने अपने विवरण में किसी भी चोल राज्य के नाम का उल्लेख नहीं किया है इसलिए अधिकांश इतिहास यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उस समय चोल राज्य महत्त्वपूर्ण नहीं था और संभवत: वह राज्य पल्लवों के अधीन था. पल्लवों की शक्ति नष्ट होने पर चोल राज्य ने पुनः प्रगति की.

चोल साम्राज्य का उत्थान

चोल साम्राज्य की पुनः स्थापना विजयपाल (850-871 ई.) ने की जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था. उसने 850 ई. में तंजावुर को अपने अधिकार में कर लिया और पांड्य राज्य पर आक्रमण कर दिया. विजयपाल की मृतु 871 ई. में हो गई. उसके बाद उसका पुत्र आदित्य प्रथम (871-907 ई.) राजा बना. उसने अपने वंश की शक्ति और सम्मान को बढ़ाया. उसी के शासनकाल में 897 ई. तक चोल इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने पल्लव शासक को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और सम्पूर्ण क्षेत्र पर अधिकार कर लिया. आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद परान्तक प्रथम (907-955 ई.) राजा बना. शुरू-शुरू में वह भी चोलों के प्रभाव को बनाए रख सका. उसके पांड्य राज्य को जीता और “मदुरई कोंडा” की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है – “मदुरई का विजेता”. लेकिन उसे राष्ट्रकूटों से जब लोहा लेना पड़ा तो चोल साम्राज्य को भी हानि हुई. राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय ने 949 ई. में उसे (परान्तक प्रथम) को पराजित किया और चोल साम्राज्य  उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया. इससे चोल वंश को भारी धक्का लगा. लेकिन 965 ई. में कृष्णा तृतीय की मृत्यु के बाद जब राष्ट्रकूटों का पतन होने लगा तो चोल साम्राज्य एक बार फिर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने लगा.
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शुंग वंश के बारे में जानें – 185 ई.पू. से 75 ई.पू.

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अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ को उसी के ब्राहमण सेनापति पुष्यमित्र ने मारकर शुंग वंश (Shunga / Sunga Dynasty) की स्थापना की. बाण ने “हर्ष-चरित” में लिखा है कि अंतिम मौर्य सम्राट् बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र ने सेना के एक प्रदर्शन का आयोजन किया और राजा को इस पर्दर्शन को देखने के लिए आमंत्रित किया. उस समय उपयुक्त अवसर समझ कर उसने राजा का वध कर दिया. चलिए जानते हैं शुंग वंश के विषय में in Hindi.
WIKIPEDIA PICTURE SOURCE

शुंग वंश – राज्य विस्तार और शासन

“मालविकाग्निमित्र”, “दिव्यावदान” व तारानाथ के अनुसार पुष्यमित्र का राज्य नर्मदा तक फैला हुआ था. पाटलिपुत्र. अयोध्या और विदिशा उसके राज्य के मुख्य नगर थे. विदिशा में पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को अपना प्रतिनिधि शासक नियुक्त किया. अयोध्या के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किये. वहाँ उसने धनदेव नामक व्यक्ति को शासक नियुक्त किया. नर्मदा नदी के तट पर अग्निमित्र की महादेवी धारिणी का भाई वीरसेन सीमा के दुर्ग का रक्षक नियुक्त किया गया था.

विदर्भ से युद्ध

“मालविकाग्निमित्र” नाटक से हमें पता चलता है कि विदर्भ में यज्ञसेन ने एक नए राज्य की नींव डाली थी. वह मौर्य राजा वृहद्रथ के सचित का साला था. इससे प्रकट होता है कि वह पुष्यमित्र के विरुद्ध था. पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन से मिलकर एक षड्यंत्र रचा. इसलिए यज्ञसेन के अन्तपाल ने माधाव्सें को पकड़ लिया. इस पर अग्निमित्र ने वीरसेन को यज्ञसेन के विरुद्ध भेजा. वीरसेन ने यज्ञसेन को हरा दिया. इस पर यज्ञसेन को अपने राज्य का कुछ भाग माधवसेन को देना पड़ा. इस प्रकार विदर्भ राज्य को पुष्यमित्र का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा.

यूनानियों का आक्रमण

पतंजली के महाभाष्य से दो बातों का हमें पता चलता है –
  1. पतंजलि ने स्वयं पुष्यमित्र के लिए अश्वमेध यज्ञ कराये
  2. उस समय एक आक्रमण में यूनानियों ने चित्तौड़ के निकट मध्यमिका नगरी और अवध में साकेत का घेरा डाला, किन्तु पुष्यमित्र ने उन्हें पराजित किया.
“गार्गी संहिता” के युगपुराण में भी लिखा है कि दुष्य, पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया. संभवतः यह आक्रमण उस समय हुआ जब पुष्यमित्र मौर्य राजा का सेनापति था. संभव है कि इस युद्ध में विजयी होकर ही पुष्यमित्र बृहद्रथ को मारकर राजा बना हो. कालिदास ने यूनानियों के एक दूसरे आक्रमण का वर्णन अपने नाटक “मालविकाग्निमित्र” में किया है. यह युद्ध संभवतः पंजाब में सिंध नदी के तट पर हुआ और पुष्यमित्र के पोते और अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने इस युद्ध में यूनानियों को हराया. शायद यह युद्ध इस कारण हुआ हुआ हो कि यूनानियों ने अश्वमेध के घोड़े को पकड़ लिया हो. सभवतः यह यूनानी आक्रमणकारी, जिसने पुष्यमित्र के समय में आक्रमण किया, डिमेट्रियस था. इस प्रकार हम देखते हैं कि पुष्यमित्र ने यूनानियों से कुछ समय के लिए भारत की रक्षा की. यूनानियों को पराजित करके ही संभवतः पुष्यमित्र ने वे अश्वमेध यज्ञ किये जिनका उल्लेख घनदेव के अयोध्या अभिलेख में है.

पुष्यमित्र की धार्मिक नीति

बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में लिखा है कि पुष्यमित्र ब्राह्मण धर्म का कट्टर समर्थक था. उसने बौद्धों के साथ अत्याचार किया. कहते हैं कि उसने पाटलिपुत्र के प्रसिद्ध बैद्ध मठ कुक्कुटाराम को, जिसे अशोक ने बनवाया था, नष्ट करने की योजना बनाई. उसने पूर्वी पंजाब में शाकल के बौद्ध केंद्र को भी नष्ट करने का प्रयत्न किया. “दिव्यावदान” में लिखा है कि उसने प्रत्येक बौद्ध भिक्षु के सिर के लिए 100 दीनार देने की घोषणा की. परन्तु यह वृत्तान्त ठीक नहीं प्रतीत होता. भारहुत के अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस समय बहुत-से दानियों ने तोरण आदि के लिए स्वेच्छा से दान दिया. यदि पुष्यमित्र की नीति बौद्धों पर सख्ती करने की होती तो वह अवश्य विदिशा के राज्यपाल को आज्ञा देता कि वह बौद्धों को इमारतें बनाने की आज्ञा न दे. संभव है कि कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से पुष्यमित्र उनके साथ सख्ती का बर्ताव किया है.

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी

पुराणों में पुष्यमित्र के बाद नौ अन्य शुंग राजाओं के नाम लिखे हैं. अग्निमित्र का नाम कुछ सिक्कों पर खुदा है जो रूहेलखंड में मिले हैं. वसुमित्र का भी नाम “मालविकाग्निमित्र” में आता है. संभवतः हेलियोडोरस के बेस-नगर के गरुड़ध्वज अभिलेख में भागवत नाम के राजा उल्लेख है. संभव है वह भी शुंग वंश का रहा हो. इस वंश का अंतिम राजा देवभूति था जिसे उसके अमात्य वसुदेव ने मारकर 75 ई.पू. के लगभग काण्व वंश की नींव डाली.

काण्व वंश

काण्व वंश में चार राजा हुए – वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा जिन्होंने लगभग 45 वर्ष राज्य किया.  काण्व वंश  उपरान्त मगध में कौन राजा हुए, यह कहना कठिन है. पाटलिपुत्र न कुछ काल के लिए मित्र वंश के राजाओं ने राज्य किया. उनके बाद शक-मुरुंडो का इस प्रदेश पर अधिकार हो . अंत में नाग वंश और गुप्त वंश के राजाओं ने शक-मुरुंडों का नाश किया.
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चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य – सैनिक उपलब्धियाँ तथा तत्कालीन भारत

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आज हम चन्द्रगुप्त द्वितीय यानी विक्रमादित्य (375-415 ई.) के विषय में पढेंगे. विक्रमादित्य के परिवार, उसके सिहांसन पर बैठने के समय साम्राज्य की अवस्था, उसका वैवाहिक जीवन, शक विजय, शक विजय के परिणाम, शासन प्रबंध, सिक्के, धार्मिक दशा, सामाजिक अवस्था, शासन-प्रबंध आदि के विषय में पढेंगे.

नाम और परिवार

चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके अभिलेखों में भिन्न नामों से पुकारा गया है. साँची के अभिलेख में देवराज, वाकाटक राजा प्रवरसेन द्वितीय के अभिलेख में देवगुप्त और उसके कुछ सिक्कों पर उसे देवश्री कहा गया है. उसकी दो रानियाँ थीं – ध्रुवदेवी जिसके पुत्र कुमारगुप्त और गोविन्द गुप्त थे और कुबेरनागा जिसकी पुत्री प्रभावती गुप्ता थी, जिसका विवाह वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय से हुआ.
मथुरा, भितरी-स्तम्भ और एरण अभिलेखों से हमें ज्ञात होता है कि उसके पिता समुद्रगुप्त ने अपने जीवन-काल में ही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को अपने बहुत-से पुत्रों में से सबसे योग्य पुत्र समझकर सिंहासन के लिए चुना था.

सिंहासन पर बैठने के समय साम्राज्य की अवस्था

समुद्रगुप्त ने अपने जीवन-काल में भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करके शांति और सुव्यवस्था स्थापित कर दी थी, परन्तु पश्चिमी क्षत्रप अब भी शक्तिशाली थे. वे साम्राज्य के आर्थिक विकास में भी विघ्न-रूप थे क्योंकि विदेशों से सारा व्यापार पश्चिमी समुद्र-तट से ही होता था.

वैवाहिक संबंधों का महत्त्व

इस समय दो राजकुल शक्तिशाली थे – नागवंश और वाकाटक. नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विक्रमादित्य के विवाह के कारण यह वंश उसके पक्ष में था. चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय से करके अपनी शक्ति बढ़ा ली. वाकाटकों की स्थिति ऐसी थी कि उनकी मित्रता गुप्त साम्राज्य के लिए एक वरदान हो सकती थी और उनकी शत्रुता उसके लिए महान् संकट. इस वैवाहिक सम्बन्ध से चन्द्रगुप्त को शक विजय में बड़ी सुविधा हुई.

शक विजय

चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना पश्चिमी मालवा और सुराष्ट्र के शकों के ऊपर विजय थी. समुद्रगुप्त ने अपने राज्यकाल में पूर्वी मालवा को जीत लिया था. वहाँ से विक्रमादित्य ने शकों पर आक्रमण करने की तैयारी की. उदयगिरि दरीगृह अभिलेख में लिखा है कि चन्द्रगुप्त वहाँ स्वयं अपने विदेश और युद्ध-मंत्री वीरसेन शाब के साथ आया. उदयगिरि के अभिलेख से पता लगता है कि उस समय उदयगिरि में सनकानिक वंशीय गुप्त सामंत उपस्थित था. वाकाटक राजाओं से वैवाहिक सम्बन्ध हो जाने से भी इस विजय में सहायता मिली. यह विजय संभवतः 388 ई. से 409 ई. के बीच हुई क्योंकि सन् 388 ई. के बाद के शक सिक्के नहीं मिलते और 409 ई. के आस-पास का जो चन्द्रगुप्त द्वितीय का सिक्का मिला है उसमें शक सिक्कों की भांति यूनानी लिपि और तिथि है.

शक विजय के परिणाम

इस विजय के कारण गुप्त-साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक फैला गया. विजय के फलस्वरूप पश्चिमी देशों से व्यापार के कारण गुप्त साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी. भारत का यह भाग, जिस पर विदेशी राज्य कर रहे थे, उनसे मुक्त हो गया. पश्चिमी देशों से विचार-विनिमय तीव्रतर गति से होने लगा. उज्जयिनी एक व्यापार का केंद्र तो था ही, अब धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी प्रमुख हो गया और वह साम्राज्य की दूसरी राजधानी बन गयी.

अन्य विजयें

दिल्ली के पास महरौली में क़ुतुबमीनार के निकट एक लौह-स्तम्भ है. इस पर “चन्द्र” नाम के एक राजा की प्रशस्ति खुदी है. उसमें लिखा है कि चन्द्र ने अपने शत्रुओं के संघ को बंगाल में पराजित किया. दक्षिण समुद्र को अपने वीर्यानिल से सुवासित किया तथा सिन्धु के सातों मुखों को पार कर वाह्लीकों को परास्त किया. इस प्रकार पृथ्वी पर एकाधिराज्य स्थापित कर उसने दीर्घकाल तक राज्य किया. अधिकतर विद्वानों का अब यही मत है कि यह चन्द्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है. यदि यह बात ठीक हो तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने बंगाल पर अपना पूरा अधिकार जमा लिया और उत्तम-पश्चिम के विदेशी राजाओं को भी हराया.

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त एक कुशल योद्धा ही नहीं था अपितु एक योग्य शासक भी था. उसकी शासन-पद्धति का वर्णन गुप्त शासन-व्यवस्था के साथ किया जायेगा. फाहियान ने भी चन्द्रगुप्त के शासन की प्रशंसा की है.
उसके अभिलेखों में हमें पाँच निम्नलिखित मुख्य अधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं –
  1. सनकानिक – उदयगिरि अभिलेख में चन्द्रगुप्त के इस सामंत का उल्लेख है.
  2. आम्रकार्दव – साँची में विक्रमादित्य का सेनापति था. वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था.
  3. वीरसेन शाब – विदेश और युद्ध मंत्री. वह शैव था.
  4. शिखर स्वामी – मंत्री और कुमारामात्य था.
  5. महाराज श्री गोविन्द गुप्त – राजकुमार गोविन्दगुप्त तीरभुक्ति (तिरहुत) का राज्यपाल था.

सिक्के 

चन्द्रगुप्त ने पाँच प्रकार के सिक्के चलाये. धनुष वाले सिक्कों पर एक ओर गरुड़ की आकृति है और दूसरी ओर लक्ष्मी की आकृति है. सिंहवध वाले सिक्कों पर एक ओर राजा को सिंह को मारते हुए और दूसरी ओर सिंहवाहिनी दुर्गा की आकृति है. इसमें सिंह संभवतः चन्द्रगुप्त की सुराष्ट्र-विजय का सूचक है. इसके अतिरिक्त उसने सिंहासन, छत्र और घुड़सवार वाले सिक्के भी चलाये. चन्द्रगुप्त द्वितीय के चाँदी के सिक्के शक सिक्कों के समान हैं.

फाहियान का वर्णन

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में फाहियान नामक चीनी यात्री बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने और बौद्ध धर्मग्रन्थों का संग्रह करने भारत आया. उसने लिखा है कि कुछ शहरों जैसे शान-शान और कड़ा में 4,000 हीनयान बौद्ध रहते थे. खोतन नामक शहर में दस हजार से अधिक महायान बौद्ध रहते थे. काशगर भी हीनयान बौद्धों का केंद्र था. अफगानिस्तान में 3,000 हीनयान और महायान बौद्ध थे.

भारत की धार्मिक दशा

भारत के अंदर फाहियान ने देखा कि पंजाब में बहुत-से मठ थे जिनमें लगभग 10,000 भिक्षु रहते थे. मथुरा में 20 मठ थे जिनमें 3,000 भिक्षु रहते थे. मध्य देश में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था. वहाँ के लोग परोपकारी प्रवृत्ति के थे. राजा, अमीर और साधारण लोग सभी मन्दिर बनवाते और जमीन और मकान दान में देते. कुछ दानी बाग़ भी दान में दे देते थे. दान में बैल भी दिए जाते थे जो खेती के लिए काम में लाए जाते थे. दानपात्र लिखे जाते थे. उन दानपत्रों के नियमों का पीछे आने वाले राजा भी पालन करते थे. यात्रा करने वाले भिक्षुओं के लिए कमरों में बिस्तर, भोजन और कपड़ों की व्यवस्था रहती थी. सारिपुत्त, मोग्गलन, आनंद  जैसे प्राचीन भिक्षुओं तथा अभिधम्म, विनय और सुत्त पिटक का आदर करने के लिए लोग मठ बनाते और बहुत-से परिवार भिक्षुओं के लिए कपड़े आदि की व्यवस्था करने के लिए धन इकठ्ठा करते थे. फाहियान ने लिखा है कि उस समय बौद्धधर्मावलम्बियों के अतिरिक्त अन्य लोग भी पुण्य-शालाएँ बनाते थे जिनमें यात्रियों और भिक्षुओं के ठहरने, बिस्तर, खाद्य और पेय की व्यवस्था रहती थी. इनमें सब जातियों और धर्मों के व्यक्तियों के ठहरने का प्रबंध था. पाटलिपुत्र में दो मठ थे. महायान सम्प्रदाय के मठ में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रेवत रहता था जो बौद्ध धर्म का प्रकांड पंडित था.

सामाजिक अवस्था

फाहियान ने लिखा है कि मध्यदेश में कोई व्यक्ति किसी जीव को नहीं मारता था. वहाँ के निवासी शराब भी नहीं पीते थे. लहसुन और प्याज का भी प्रयोग नहीं किया जाता था. चांडाल शहर के बाहर रहते थे. इस देश में लोग सूअर और मुर्गियाँ नहीं रखते थे. न कोई पशु बेचता था, न कोई कसाई की दूकान थी, न बाजारों में शराब बनाने की दुकानें. मनुष्य व्यापार में कौड़ियों का प्रयोग करते थे.
उसने लिखा है कि मगध में लोग संपन्न हैं. वे परोपकार करने और अपने पड़ोसियों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने में एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं. धनी मनुष्यों ने नगरों में निःशुल्क अस्पताल स्थापित किये हैं. उनमें निर्धन और दीन रोगी, अनाथ, विधवा और लंगड़े-लूले आते हैं. डॉक्टर उनकी चिकित्सा करते हैं. उन्हें आवश्यकतानुसार भोजन और औषधि दी जाती है. उनके आराम का पूरा ध्यान रखा जाता है.
फाहियान ने एक रथयात्रा का वर्णन भी किया है जिसमें मनुष्य चार पहियों के पाँच मंजिल वाले रथों के जुलूस निकालते थे. इस अवसर पर ब्राह्मण लोग बौद्धों को भी बुलाते थे.

शासन प्रबंध

फाहियान ने लिखा है कि मध्य देश में मनुष्यों को अपने नामों की रजिस्ट्री नहीं करानी पड़ती. उन पर कोई प्रबंध नहीं है. वे चाहे जहाँ जा सकते और रह सकते हैं. सरकार प्रजा के हित का बहुत ध्यान रखती है. किसानों को अपनी उपज का एक भाग राजा को देना होता है. शारीरिक दंड नहीं दिया जाता. अधिकतर अपराधों के लिए केवल जुर्माने किए जाते हैं. राजा के सैनिक अंग-रक्षकों को नियत वेतन दिया जाता था.
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